राजस्थान की राजनीति पर चाय की चुस्कियों के साथ चुनावी चर्चा
प्रकृति करवट बदल रही है। चैत्र के महिने और वसंत ऋतु में सर्द हवाएं मौसम के मिजाज में ठंडक घोल रही है। गर्म चाय की प्याली की चुस्कियां भले ही थोड़ी सी गर्माहट का अहसास करा दे, लेकिन चुनावी साल में फिजाओं में फैली गुलाबी ठंड के बीच राजनीति का मिजाज अब धीरे धीरे गरमाता जा रहा है। मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा कार्य व्यवहार, इस मौसम के मिजाज को जिस्मानी रुप से चुस्त, दुरुस्त और तंदुरुस्त बनाए तो रखता है साथ ही वैचारिक उथलपुथल के बीच कुछ विषय भी सहज या असहज रुप से जुड़ते चले जाते हैं। और यह सब बैठकखाने तक ही सीमित नहीं होता, घर की दहलीज से निकलते हुए गांव गलियों से गुजरते हुए सड़क के चौराहे और चौबारे तक चर्चा और बहस में तब्दील होते जाते हैं। वाद, विवाद और संवाद से होते हुए किसी निष्कर्ष तक भले ही पहुंचे या नहीं, लेकिन अक्ल की सुनिए, दिल का कहा कीजिए तक का सफर तय करते हुए हर किसी के जहन में एक निर्णय तक पहुंच ही जाते हैं। जब हम किसी फैसले या निर्णय तक पहुंचने की बात करते हैं तो उसमें कई तत्व सहायक हो जाते हैं और कुछ असहायक भी। इन सबके साथ फैसले के अंतर्गत जो मनोभाव उभर कर सामने आते हैं, वे हर व्यक्ति की तकदीर और तदबीर को बदलने का आधार बन जाते हैं। चौक, चौराहे और चाय की दुकानों पर जोश और होश के सहयोग और समन्वय की बैठकों के बीच जीवन के विविध विषयों के साथ जब राजनीति और राज की नीति का सवाल आता है तो चाय के प्याले में जैसे तूफान आ जाता है। वाद, विवाद और संवाद के साथ चर्चाएं, कहानी किस्सों के रथ पर सवार होकर आंचलिक शब्दों के साथ नए साहित्य की रचनाएं करने लगती है तो कभी दूध के उबाल की तरह फैल कर जोश और उत्साह के नए रंग भर देती है। कभी समंदर की लहरों की तरह सतह पर उफान मार जाती तो कभी लहरों के नीचे ठहरे पानी की तरह स्वच्छ और शांत होकर रह जाती। उम्र और अनुभव, सफेद बाल, चेहरे की झुर्रियां, आंखों का धुंधलापन और जबानों से निकलते कंपकंपाते अल्फाजों में होश और अनुभव यह साबित करने के लिए काफी होता था कि अभी भी राजनीति और राज की नीति की समझ हरेभरे बरगद की जड़ों और उसकी जटाओं से भी लंबी और गहरी है।
राजस्थान की राजनीति में पक्ष-विपक्ष में मतभेद रहे, मनभेद नहीं
चाय की प्यालों से निकलती गर्म भाप ने एकबारगी होठों पर गर्माहट ला देती है तो चाय की चुस्कियों और उसके सबड़कों से आजादी के बाद से लेकर आज तक के राजनीतिक सफर की चर्चाएं साज और आवाज के साथ सुर मिलाते हुए पुरानी यादों की तरह जीभ को भी जला देती है। फिर क्या है, हीरालाल शास्त्री से लेकर अशोक गहलोत तक के राजनीतिक सफर में, राजनीतिक दलों का कार्य व्यवहार और शासन सत्ता से लेकर चुनावी चौसर में दांव लगाने वाले हर एक किरदर की जन्मकुंडलियां किसी वंशावलियों की पांडुलिपियों की तरह खुलने लगती है। लोग इस बात को स्वीकारते हैं कि राजस्थान की राजनीति में शुचिता की अहम भूमिका रही है। हीरालाल शास्त्री से लेकर अशोक गहलोत तक के राजनीतिक सफर में जयनारायण व्यास, टीकाराम पालीवाल, मोहनलाल सुखाड़िया, बरकतुल्लाह खान, हरिदेव जोशी, भैंरोसिंह शेखावत, जगन्नाथ पहाड़िया, शिवचरण माथुर, हीरालाल देवपुरा और वसुंधरा राजे, सभी मुख्यमंत्री वैचारिक रुप से एक दूसरे के विरोधी रहे हैं, लेकिन सभी में एक खास बात यह सामान्य रही कि उन्होंने मतभेदों के बीच रहते हुए कभी भी मनभेद को हावी नहीं होने दिया। पक्ष और विपक्ष की राजनीति सदन से लेकर सड़कों तक दिखाई देती है। सदन में भी चर्चाओं के दौरान कई बार ऐसे अवसर आए हैं एक दूसरे को देख लेने की धमकियों तक, लेकिन लोक व्यवहार में सभी एक दूसरे से गलबहियां करते दिखाई देते हैं। कारण साफ और स्पष्ट है कि राजस्थान की राजनीति ही नहीं, यहां के लोक व्यवहार में अभी भी राजनीतिक सदाचार कायम है, विचार और व्यवहार में दोहरापन नहीं हैं, जो कुछ है वह सिर्फ अपने विचारों और व्यवहारों के पक्ष में मत रखने तक ही सीमित है। राजनेताओं के विचार और व्यवहार की तरह ठीक ऐसा ही लोक आचरण और सदाचार गांव की गलियों, चौराहों की थड़ियों पर बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ गपियाने के तौरतरीकों में महसूस किया जा सकता है। 2023 का विधानसभा चुनाव हालांकि अभी आठ नौ महीने दूर है। सरकार के चार साल पूरे हो चुके हैं। चार साल पहले सात दिसंबर 2018 को 15 वीं विधानसभा के लिए मतदान हुआ था। इसमें साढ़े 74 फीसदी से अधिक लोगों ने मतदान कर यह साबित कर दिया कि उन्होंने अपनी पसंद की सरकार चुनी। हालांकि कांग्रेस और बीजेपी के बीच मतों का अंतर दशमलव 54 प्रतिशत का रहा, लेकिन इस जबरदस्त वैचारिक जंग ने यह भी जता दिया कि लोग अपनी पसंद के अनुरुप बिना किसी भय और पक्षपात के अपने प्रतिनिधियों को चुनने में अक्ल की सुनिए दिल का कहा कीजिए के द्वंद्व में स्वविवेक का पालन करते हैं।
नव-यौवन की ओर राजस्थान विधानसभा
अब जब कि पंद्रहवीं विधानसभा के चार साल का कार्यकाल पूरा हो गया है, सोलहवीं विधानसभा चुनाव की तैयारियां भी शुरु हो रही है। हमारे जीवन में 16 का बहुत महत्व है। कहा जाता है कि जीवन में सोहलवां साल उस नवयौवना की तरह होता है, जो सोलह श्रृंगार कर सोलह कलाओं के साथ जीवन की दहलीज को पार करता है और उसके अहसास मात्र से हर तरफ खुशियां नई आशाओं और उम्मीदों के साथ हिलोरे मारने लगती हैं। राजनीति के लोक व्यवहार और आचार विचार में ठीक ऐसी भावनाओं अहसास हमारी 16 वीं विधानसभा में भी दिखाई देगा, जब नए विधायक महोदय अपनी नवकल्पनाओं को संवैधानिक ढांचे में ढ़ालने के लिए अपनी सकारात्मक और रचनात्मक ऊर्जा से अपने क्षेत्रों के आधारभूत विकास, जनआकांक्षाओं को पूरा करने के लिए मन, प्राण और चेतना से प्रयास करेंगे। वे लोगों के विश्वास पर खरा उतरते हुए यहां की राजनीतिक परंपराओं का पालन करते हुए और मर्यादाओं के भीतर रहते हुए मतभेदों को बरकरार रखते हुए मनभेद से रहित होकर अपने विधायक होने का फर्ज अदा करेंगे। बरगद के पेड़ के नीचे थड़ी पर बैठे लोग ठंडी हो रही चाय की अंतिम चुस्की के साथ अपनी चर्चाओं को विराम देते हुए जब चुनावी राजनीति के बारे में ठंडी आहें भर कर यह कहते सुने जाते हैं कि भोली जनता इन लोगों के लिए खिलौना है, तो मन में कई तरह के सवाल भी उठ खड़े होते हैं कि राजनीति से लोगों का विश्वास क्यूं टूटने लगता है। दिन के उजालों के साथ शुरु होती सवालों और जवाबों की यह कसमसाहट, भले ही राजनीतिज्ञों के लिए पांच साल वाले चुनावी महोत्सव के रुप के देखा और समझा जाता हो, लेकिन आम आदमी जो ऐसी जगहों पर बैठकर अपने सुख दुख को सांझा करते हुए सुखद भविष्य का तानाबाना बुनते हैं, अपने वैचारिक चिंतन को जो उड़ान देते हैं, वह निश्चित रुप से कभी न कभी गति जरुर देंगे।
- रमेश पुरोहित "भासा"